कुछ बातें होती हैं जिन्हें कहने का मन होता है पर सामान्यतः किसी के काम की नहीं होतीं । आज के उपयोगितावादी युग में ऐसी अनुपयोगी बातों को कौन सुने । अगर कहने लगूँ तो वे लोग भी ऊब जाते हैं जिनसे बहुत सारी लाभकारी बातें की हों । सदा मैं ऐसा नहीं रह सकता कि केवल मतलब की बात करूँ । मैं किसी से ऐसी आशा कैसे रख सकता हूँ कि कोई केवल मेरी बकवास सुनने के लिए अपना समय खर्च करे । इसके लिए यह ब्लॉग बनाया है, जहाँ सामने बैठे सुनने वाले की ज़रूरत नहीं । फिर भी मनुष्य की अपनी महत्त्वपूर्ण जगह है ।
बुधवार, 16 मार्च 2011
भगवान के प्यारे
भगवान के प्यारे होने के लोग कई अर्थ लगाते हैं । कई अर्थ होते भी हैं । मुझे सबसे प्रिय अर्थ वह है- पिताजी अक्सर कहा करते हैं कि भगवान् कहते हैं कि जो मेरा बहुत प्रिय होता है, उसका हम सब कुछ छीन लेते हैं । जब एक एक करके बहुत सी चीज़ें अपने पास से छूटते देखता, और यह क्रम एक ही दिशा में चलता रहता, तो कष्ट तो बहुत होता था, पर यह बात याद करके खुशी भी मिलती थी कि मैं भगवान् का प्यारा हूँ । और यह मैं अपने को दिलासा देने के लिए ऐसे ही नहीं कह रहा । हमें भगवान् का प्यारा होने का पूरा विश्वास भी है । भगवान का प्यारा मैं केवल तब ही नहीं था जब (सब नहीं) बहुत कुछ छिनता दिखाई देता था, जब हमारे पास बहुत कुछ है, तब भी मैं भगवान का प्यारा हूँ । कोई अगर कहे कि क्या सबूत है, तो इसकी कोई जरूरत नहीं । सबूत तो दूसरों के लिए होता है, अपने लिए तो विश्वास ही पर्याप्त है ।
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