बुधवार, 6 जून 2012

शुक्र पारगमन - ६-६-१२


सूर्य प्रतिबिम्ब में शुक्र की छाया

आज हम शुक्र पारगमन के लिए सूर्योदय से पहले उठे । यह बहुत लम्बे समय के बाद हुआ था । सूर्य के बिम्ब को आज शुक्र ने पार किया । इसे देखने का सबसे अच्छा समय सूर्योदय का समय था जब सूर्य को सीधे देखना सम्भव था । पर निकले ही थे कि ऊपर बादल घिर आए । पहले से दिखता हुआ चाँद भी छिप गया । फिर भी हम पीएसआर - पार्थसारथी शिला पर बैठ गए जो हमारे विश्वविद्यालय का सबसे ऊँचा पर्वत शिखर है । बैठे थे सूर्योदय, और सूर्य पर पार करते हुए शुक्र को देखने के लिए । पर बादल । थोड़ी आशा बँधी कि ऊपर और पश्चिम से बादल छँटने लगे । हम बैठे प्रतीक्षा कर रहे थे कि कब बादल हटें तो सूर्य प्रकट हो और हम शुक्र पारगमन देख सकें । इच्छित दृश्य में बाधक सुन्दर दृश्यों की फ़ोटो भी बीच-बीच में ले ले रहे थे । पाँच बजे से पहले से बैठे थे पर छः बजे तक प्रतीक्षा करने के बाद हम वहाँ से चल दिए । जब देख लिया था कि सूर्य की रोशनी जो बादलों के बीच से झाँक रही थी, वह तेज हो गई थी ।

फिर स्टेडियम में दो चक्कर लगाए, दौड़कर नहीं, टहलते हुए । फिर लौट आए अपने छात्रावास । उठने से नाश्ता करने तक का रूटीन दोहराया । महीनों बाद नाश्ता मिलने की शुरुआत में हमने नाश्ता लिया था । नाश्ता लेकर हम संस्कृत सेंटर की ओर चल पड़े, पहले से सोचा हुआ शुक्र पारगमन (venus transit) देखने का वैकल्पिक मार्ग अपनाने के लिए । अरे हाँ, बीच की एक बात बताना तो भूल ही गए । हॉस्टल में आकर एक और वैकल्पिक तरीका अपनाया पर देखने में असफल रहे । एक चार्ट के टुकड़े पर छोटा सा छेद करके, उससे निकलती किरण से दूसरे चार्ट पर सूर्य का उल्टा प्रतिबिम्ब बनाने का । देखा था कि धूप तेज हो गई थी सात बजे । पर उसमें पर्याप्त साफ नहीं दिखाई दे रहा था । इसलिए ऐसा ही प्लान जो संस्कृत सेंटर में करने का बनाया था, उसपर भी आशा क्षीण हो गई । अब तीसरा विकल्प ही सबसे भरोसेमन्द था जो हम आठ-नौ साल पहले, लखनऊ विश्वविद्यालय में, बीए तृतीय वर्ष के छात्र रहते हुए, लाल बहादुर शास्त्री छात्रावास में अपना चुके थे । पर जगह की योजना नहीं बनी थी कि कहाँ इस प्लान को अंजाम देंगे ।

प्रतिबिम्ब बनाने वाला उपकरण
खैर नाश्ता करके जल्दी-जल्दी सेंटर आए । छोटा सा शीशा (एक इंच आकार का, फ़्रेम सहित दो इंच का) कमरे से ही जेब में रखकर ले आए थे । बाई चांस क्षितिज (इसे व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में लें, सूर्य के प्रसंग में अर्थभ्रम हो सकता है) का भी आगमन उसी समय हुआ । पौने नौ बजे हम आए और देखने लगे कि कहाँ सूर्य को प्रतिबिम्बित किया जा सकता है । देखा कि सेंटर के आँगन में अच्छी खासी धूप आ चुकी । ऊपरी मंजिल पर गए तो एक गैलरी सूनी मिली । ऊपर की खिड़कियाँ भी छोटी हैं और उस गैलरी का अन्तिम छोर अँधेरा रहता है अगर लाइट न जल रही हो तो । वाह, यह तो बड़ी आसानी से मिल गया । शीशे से प्रतिबिम्ब गैलरी के छोर पर डाला । बिलकुल सूर्य के आकार का एकदम गोल सफेद प्रतिबिम्ब बन रहा था टाइल्स पर । पर हाथ में पकड़े हुए शीशा हिल रहा ता । दर्पण को स्थिर करने के लिए स्टैंड ? अरे रखा है न, थर्माकोल । वही जो इंटरैक्टिव व्हाइट बोर्ड के पैक से निकला था और हमने लैब में सम्याल कर रख लिया था । बस, जमीन पर थर्माकोल को लिटाकर उसमें दर्पण को आंशिक रूप से गाड़ दिया थोड़ा टेढ़ा करके । बस प्रतिबिम्ब स्थिर हो गया । और हमारा जी खुश हो गया । हमने उस प्रतिबिम्ब की फ़ोटो ली । और उस प्रतिबिम्ब को बनाने वाले उपकरण के महत्त्व को कैसे उपेक्षित किया जा सकता है । उसकी भी फ़ोटो ली । उन्हें फ़ेसबुक के अपने प्रोफ़ाइल पर लगाया है । आप सूर्य बिम्ब में नीचे बाईं ओर शुक्र बिम्ब की छाया देख सकते हैं ।