गुरुवार, 4 जून 2015

शिखरिणी छन्द - हिन्दी में

तुम्हें कैसे बोलें, कब तक कहेंगे न इसको,
--- तुम्हारी बातें हैं, तुम बिन कहें भी तो किसको ।
तुम्हें देखा जैसे, मुझ पर हुआ ये असर है,
--- तुम्हारी मुस्कानें, हर जगह पाऊँ बिखरती ॥

{{स्पष्टीकरण - १ - हिन्दी में म्ह स्वयं में एक ध्वनि है न कि संयुक्त वर्ण, यद्यपि संयुक्त के रूप में लिखा जाता है । २ - हिन्दी में ए और ओ को ह्रस्व तथा दीर्घ दोनों प्रकार से उच्चारित किया जाता है । दूसरे चरण में आने वाला ‘तो’ शब्द ह्रस्व रूप में पढ़ा जाए ।}}

बुधवार, 22 अप्रैल 2015

कितना सुन्दर होगा अगर हर रिश्ते से मिलने वाले लाभ का मौद्रिक आकलन किया जा सके

यह बात उठी एक अंग्रेजी लेख से जिसका शीर्षक है This Guy Says He Can’t Afford His Wife. Once You Read This, You’ll Realise He’s Totally Right जो कि इस लिंक पर उपलब्ध है - http://pulptastic.com/guy-says-cant-afford-wife-stay-home-mom-hes-right/
पहले लेख का सारांश-
स्टीवेन नेम्स ने अपने पुत्र के जन्म के बाद अपनी पत्नी ग्लोरी के योगदान का मौद्रिक आकलन किया है । आकलन करते हुए उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि यदि ग्लोरी के किये कामों का वेतन राष्ट्रीय औसत के हिसाब से दिया जाए तो यह सालाना ७३,९६० डालर बैठता है जो कि खुद स्टीवन की आय का लगभग दोगुना है । इस आधार पर वे कहते हैं कि पत्नी का घर पर रहकर काम करना वे अफ़ोर्ड नहीं कर सकते । पत्नी के बहुमूल्य योगदान को बड़ी विनम्रता और आदर के साथ स्वीकार किया है ।

जिन कामों को उन्होंने अनुसूचित किया है लगभग वे सारे काम (और कभी कभी अधिक भी) अधिकतर भारतीय गृहिणियाँ भी करती हैं । कामकाजी महिलाएँ तो बाहर की नौकरी के अलावा भी ये सारे काम करती हैं । अकेले रहने वाले पुरुष जब घर की और कपड़ों की सफाई करने बैठते हैं तो कभी कभी शायद उन्हें अहसास हो जाता है कि औरत को कितना काम करना पड़ता है (कम से कम मुझे तो होता है) ।

अब मुख्य मुद्दे की बात-
कैसा हो यदि सभी रिश्तों के योगदान का मौद्रिक आकलन किया जा सके? सबसे पहले खाद्य पदार्थों का आकलन । रोटी को लेते हैं । गेहूँ का मूल्य १५ रुपये किलो के आस पास है । खेतिहर मजदूर को अकुशल मजदूर माना जाता है पर यह एक कुशलता का काम है । मजदूर के श्रम का आकलन बहुत ही नीचा है । चलो इसे शहरों के कारीगरों के अनुसार नापते हैं । एक प्लंबर शहर में आधे या एक घंटे का आराम से चार पाँच सौ चार्ज करता है । कृषि मजदूर का वेतन उस हिसाब से तय किया जाए (दैनिक छः घण्टे) तो प्रति दिन ढाई-तीन हजार बैठता है । गेहूँ की फसल चार महीने में पकती है और मान लें कि कुल एक महीने का गहन काम होता है (जुताई, बुवाई, दो सिचाई, दो-तीन बार खाद, निराई या कीटनाशक, कटाई, खँदाई या गहाई (थ्रेशिंग) और ढुलाई) और बाकी समय छुट्टी । और मान लो चार बीघे में चार लोग लगते हैं इस प्रकार प्रति बीघा एक व्यक्ति । तो एक बीघे की श्रम लागत 25000 x 30 = 750000 रुपये बैठती है । उस खेत में उत्तम फसल होने पर प्रति बीघे चार कुंतल गेहूँ पैदा होता है । इस प्रकार प्रति किलो गेहूँ में श्रम की लागत ७५००००/४०० = १८७५ रुपये बैठती है । बाकी बीज, सिंचाई आदि के २५ रुपये और जोड़ लो तो १९०० रुपये प्रति किलो गेहूँ बाजार में उपलब्ध होगा । अनुमान लगाओ कि कितने लोगों की थाली में रोटी होती और कितने लोग आज जीवित होते ।

दूसरा उदाहरण बॉयफ़्रैंड का । हमने बॉयफ़्रैंडों को अनेक भूमिकाएँ निभाते देखा है - सिक्योरिटी गार्ड की तरह सुरक्षा, प्रेयसी के लिए अपने हाथ से बस स्टॉप की बेंच साफ करता सफाई कर्मी, माता पिता की तरह उसकी हर जरूरत का खयाल रखने वाला (धन से और ध्यान से), यदि उसके पास अपनी गाड़ी हुई तो हर जगह ले जाता हुआ, प्रेयसी के लिये नोट्स और असाइनमेंट का जुगाड़ करता हुआ या खुद बनाता हुआ -- कितनी प्रकार की सेवाएँ देते हैं । इस प्रकार अफ़ोर्डेबिलिटी का आकलन किया जाए तो कुछ करोड़पति परिवारों की लड़कियों के अलावा कोई लड़की बॉयफ़्रैंड अफ़ोर्ड नहीं कर सकती । सोचो कितने रिश्ते बनेंगे और कितने बचेंगे यदि इस प्रकार रिश्तों का मौद्रिक आकलन किया जाए ।

बुधवार, 6 जून 2012

शुक्र पारगमन - ६-६-१२


सूर्य प्रतिबिम्ब में शुक्र की छाया

आज हम शुक्र पारगमन के लिए सूर्योदय से पहले उठे । यह बहुत लम्बे समय के बाद हुआ था । सूर्य के बिम्ब को आज शुक्र ने पार किया । इसे देखने का सबसे अच्छा समय सूर्योदय का समय था जब सूर्य को सीधे देखना सम्भव था । पर निकले ही थे कि ऊपर बादल घिर आए । पहले से दिखता हुआ चाँद भी छिप गया । फिर भी हम पीएसआर - पार्थसारथी शिला पर बैठ गए जो हमारे विश्वविद्यालय का सबसे ऊँचा पर्वत शिखर है । बैठे थे सूर्योदय, और सूर्य पर पार करते हुए शुक्र को देखने के लिए । पर बादल । थोड़ी आशा बँधी कि ऊपर और पश्चिम से बादल छँटने लगे । हम बैठे प्रतीक्षा कर रहे थे कि कब बादल हटें तो सूर्य प्रकट हो और हम शुक्र पारगमन देख सकें । इच्छित दृश्य में बाधक सुन्दर दृश्यों की फ़ोटो भी बीच-बीच में ले ले रहे थे । पाँच बजे से पहले से बैठे थे पर छः बजे तक प्रतीक्षा करने के बाद हम वहाँ से चल दिए । जब देख लिया था कि सूर्य की रोशनी जो बादलों के बीच से झाँक रही थी, वह तेज हो गई थी ।

फिर स्टेडियम में दो चक्कर लगाए, दौड़कर नहीं, टहलते हुए । फिर लौट आए अपने छात्रावास । उठने से नाश्ता करने तक का रूटीन दोहराया । महीनों बाद नाश्ता मिलने की शुरुआत में हमने नाश्ता लिया था । नाश्ता लेकर हम संस्कृत सेंटर की ओर चल पड़े, पहले से सोचा हुआ शुक्र पारगमन (venus transit) देखने का वैकल्पिक मार्ग अपनाने के लिए । अरे हाँ, बीच की एक बात बताना तो भूल ही गए । हॉस्टल में आकर एक और वैकल्पिक तरीका अपनाया पर देखने में असफल रहे । एक चार्ट के टुकड़े पर छोटा सा छेद करके, उससे निकलती किरण से दूसरे चार्ट पर सूर्य का उल्टा प्रतिबिम्ब बनाने का । देखा था कि धूप तेज हो गई थी सात बजे । पर उसमें पर्याप्त साफ नहीं दिखाई दे रहा था । इसलिए ऐसा ही प्लान जो संस्कृत सेंटर में करने का बनाया था, उसपर भी आशा क्षीण हो गई । अब तीसरा विकल्प ही सबसे भरोसेमन्द था जो हम आठ-नौ साल पहले, लखनऊ विश्वविद्यालय में, बीए तृतीय वर्ष के छात्र रहते हुए, लाल बहादुर शास्त्री छात्रावास में अपना चुके थे । पर जगह की योजना नहीं बनी थी कि कहाँ इस प्लान को अंजाम देंगे ।

प्रतिबिम्ब बनाने वाला उपकरण
खैर नाश्ता करके जल्दी-जल्दी सेंटर आए । छोटा सा शीशा (एक इंच आकार का, फ़्रेम सहित दो इंच का) कमरे से ही जेब में रखकर ले आए थे । बाई चांस क्षितिज (इसे व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में लें, सूर्य के प्रसंग में अर्थभ्रम हो सकता है) का भी आगमन उसी समय हुआ । पौने नौ बजे हम आए और देखने लगे कि कहाँ सूर्य को प्रतिबिम्बित किया जा सकता है । देखा कि सेंटर के आँगन में अच्छी खासी धूप आ चुकी । ऊपरी मंजिल पर गए तो एक गैलरी सूनी मिली । ऊपर की खिड़कियाँ भी छोटी हैं और उस गैलरी का अन्तिम छोर अँधेरा रहता है अगर लाइट न जल रही हो तो । वाह, यह तो बड़ी आसानी से मिल गया । शीशे से प्रतिबिम्ब गैलरी के छोर पर डाला । बिलकुल सूर्य के आकार का एकदम गोल सफेद प्रतिबिम्ब बन रहा था टाइल्स पर । पर हाथ में पकड़े हुए शीशा हिल रहा ता । दर्पण को स्थिर करने के लिए स्टैंड ? अरे रखा है न, थर्माकोल । वही जो इंटरैक्टिव व्हाइट बोर्ड के पैक से निकला था और हमने लैब में सम्याल कर रख लिया था । बस, जमीन पर थर्माकोल को लिटाकर उसमें दर्पण को आंशिक रूप से गाड़ दिया थोड़ा टेढ़ा करके । बस प्रतिबिम्ब स्थिर हो गया । और हमारा जी खुश हो गया । हमने उस प्रतिबिम्ब की फ़ोटो ली । और उस प्रतिबिम्ब को बनाने वाले उपकरण के महत्त्व को कैसे उपेक्षित किया जा सकता है । उसकी भी फ़ोटो ली । उन्हें फ़ेसबुक के अपने प्रोफ़ाइल पर लगाया है । आप सूर्य बिम्ब में नीचे बाईं ओर शुक्र बिम्ब की छाया देख सकते हैं ।

रविवार, 27 मई 2012

राजू पासवान ने चोर पकड़ा


लखनऊ विश्वविद्यालय के लाल बहादुर शास्त्री छात्रावास में कुछ ही डबल सीटेड कमरे हैं । उनमें १२ नंबर में हम रहते थे । बीए के पहले साल में मेरा रूममेट विनय था और दूसरे साल में राजू पासवान, जो कि चम्पारन से था और हमसे एक साल जूनियर था ।
दूसरे साल की गर्मियों में जनसंख्या कम होती है । इसका फ़ायदा उठाकर चोर बाथरूम से वाश-बेसिन की टोंटी चुरा ले जाते थे । बाथरूम हमारे कमरे के सामने ही था । टोंटी चुराने के लिए वाशबेसिन को तोड़ना पड़ता था । हम घर में थे और राजू हॉस्टल में । एक-दो दिन पहले ही एक टोंटी चुराई जा चुकी थी । दोपहर को राजू सो रहा था तब उसने बाथरूम में खट-खट की आवाज सुनी । ऊँघते हुए ही वह बाथरूम में गया । उसका मन सजग था पर चेहरा ऊँघता ही बना रखा था । एक वाशबेसिन थोड़ा टूटा हुआ था । वहाँ एक आदमी था जो उस समय हाथ धोने जैसा कुछ कुछ कर रहा था, चुपचाप । वह चुपचाप कमरे में लौट आया । अगर चोर जान जाता है कि उसे पहचान लिया गया है तो भाग जाएगा । अकेले पकड़ना मुश्किल है । अब वह क्या करे?
वह फिर से बाथरूम में गया ।
"भैया जरा तखत पकड़ा देंगे? उसे एक जगह से दूसरी जगह रखना है ।"
"चलो ।"
दोनों कमरे में आ गए ।
"अकेले होगा नहीं, आप यहाँ बैठिये, हम कुछ और लोगों को बुला लाते हैं ।"
"ठीक है ।"
राजू ने धीरे से दरवाजा बाहर से बन्द कर दिया, बिना आवाज किये । फिर हॉस्टल से कई लड़कों को बुला लाया । फिर चोर के साथ जो होना था हुआ । चोर नहीं जानता था कि एक ऊँघते हुए लड़के से भी काफ़ी सावधान रहने की जरूरत थी उसे बचने के लिए ।

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

हम भला क्यों कहें

जो तुम समझ न पाओ, कहने से क्या मिलेगा
पर तुम जो समझ जाओ, कहने की क्या जरूरत

इसलिए ही अभी तक, कुछ भी कहा न तुमसे
जब ख़ुद ही से तुम समझो, आएगा कब मुहूरत

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

एक बच्चे का बच्चे सा दिल

एक बच्चे का बच्चे सा दिल बचकानी हरकत करता है
वह बच्चा वह हरकत दिल की दिखलाने में भी डरता है
जोर बहुत देते हैं सब कि जो दिल में है खोल के रख दो
लोग न समझेंगे इस कारण कुछ कह पाने में डरता है

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

मत रोको खुद को

मुझे पता है कि बेकरार हो तुम भी मुझसे मिलने को ।
कुछ तो मजबूरियाँ और कुछ उसूल रोके हैं ॥

जो कुछ भी तुम्हें रोकता हो, डराता हो तुम्हें इसके लिए ।
छोड़ो उन्हें कह दो कि ये नज़रों के धोखे हैं ॥

बातें बहुत सी करेंगे लोग तुमको डराने धमकाने को ।
सोच लो ध्वनि तरंगें हैं या हवा के झोंके हैं ॥

नहीं डरना है तुमको हमको इन विघ्न बाधाओं से ।
दुनिया वाले तो अपनी पूरी ताकत झोंके हैं ॥