गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

डिस्कवर ऑफ़ ए रिसर्चर



यहाँ मैं वह घटना शेयर करना चाह रहा हूँ जिस लम्बी प्रक्रिया के तहत मेरी मोटरसाइकिल खरीदने का निश्चय किया गया । उमेश जी की बजाज डिस्कवर चलाने में बहुत मजा आ रहा था क्योंकि मेरा अभ्यास कम था फिर भी उसे चलाना बड़ा सहज लगता था । सर मुझे बार बार खुश रहने की सलाह देते रहते थे । खुश रहने के अलग-अलग तरीके बताते । इन्हीं तरीकों में उन्होंने एक बार बता दिया कि एक बाइक खरीद लीजिए । ऐसी कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं थी । धीरे धीरे मन बनने लगा तो सोचा कि डिस्कवर ही ली जाए, उसे चलाने में ज्यादा मज़ा आता है । सर की गाड़ी भी डिस्कवर थी । उनके पास कार थी फिर भी शौक के लिए उन्होंने मोटरसाइकिल खरीदी थी । उमेश जी की ११२ सीसी की थी और सर की १२५ की । एक बार सर की मोटरसाइकिल से बुके लेने जाना हुआ । उसे चलाकर तो आनन्द ही आ गया । वह जैसे इशारा समझती थी । तभी सोच लिया कि गाड़ी लेनी है तो दमदार ही लेनी है । फिर मेरे पास ऐसा समय आया कि खाते में बहुत कम रूपये रह गए । मोटरसाइकिल लेने की इच्छा पृष्ठभूमि में चली गई । सुरजीत ने भी कई बार मेरी मोटरसाइकिल लेने की इच्छा का समर्थन किया था । अक्टूबर के प्रारम्भ की यह बात है । फिर उसके बाद कुछ ही दिनों में कुछ जगहों से गया हुआ रूपया वापस आने लगा और हमारे खाते में मोटरसाइकिल लेने भर के रुपये इकट्ठे हो गए । तब निराश होती मोटरसाइकिल लेने की इच्छा फिर से उत्साह पा गई । और १२-१३ तारीख को तय कर लिया कि मोटरसाइकिल ले लेंगे (रुपये तो रुकते नहीं हैं हमारे पास, कोई चीज़ होगी तो वह ज्यादा रुकेगी) । सर की प्रेरणा भी काफ़ी काम कर रही थी । तब हमने सोचा कि घर में बता दें, नहीं तो अच्छा नहीं लगेगा कि इतने बड़े काम को भी बताया ।

पिताजी को फ़ोन करके बताया कि एक मोटरसाइकिल लेना चाह रहे हैं । हमारी इच्छा थी की पिताजी की सहमति के साथ ही लें । और अपने मन की भी करना चाहते थे । सर की प्रेरणा के हिसाब से ऐसी मोटरसाइकिल लेना चाहते थे जिसके साथ हम खुश रहें । अगर खुशी न मिले तो मुख्य उद्देश्य ही नहीं पूरा होगा । जब दोनों बातें एक दिशा में हों तो बहुत आसान हो जाता है । जब दोनों मतियाँ हर कदम पर अलग अलग हों, और दोनों को साथ लेकर चलना हो तो बात दूसरी होती है । अब देखिये अपनी मर्जी और पिताजी की सहमति का सन्तुलन कितना होता है...

मैं - पिताजी ! हम एक मोटरसाइकिल लेना चाहते हैं
पिताजी - क्या करोगे लेकर? क्या जरूरत है? रहने दो
- हम लेना चाह रहे हैं
- रहने दो लेने को, या फिर यहाँ कोई सेकेंड हैंड देख लेंगे (पिताजी को नहीं भरोसा था कि मैं चला सकता हूँ)
- हम नई लेना चाह रहे हैं
- नई रहने दो, यहाँ दीवाली को आओगे तो बात करेंगे
- हम परसों धनतेरस को लेना चाह रहे हैं
- मोटरसाइकिल लेकर क्या करोगे? सीधे चार पहिये वाली गाड़ी लेना
- उसका समय अभी बहुत दूर है । अभी तो मोटरसाइकिल ले लें
- नहीं ले सकोगे तो मिल जाएगी (व्याख्या की जरूरत नहीं, मैं इससे सहमत नहीं)
- मुझे दूसरे से नहीं लेनी । मुझे अपनी गाड़ी लेनी है
- ठीक है अभी रहने दो, जब यहाँ आओगे तो बात करेंगे

फिर घर में भाई बहनों ने कहा कि ले लेने दो, कभी कुछ माँगते नहीं हैं । अपने लिए कुछ लेना चाह रहे हैं तो ले लेने दो । तब पिताजी ने फिर फोन किया ।

- सभी कह रहे हैं कि ले लेने दो । मोटरसाइकिल रहने दो, स्कूटी ले लो तो बहनें भी चला सकेंगी
- हम बड़ी मोटरसाइकिल लेना चाह रहे हैं
- कौन सी लेना चाह रहे हो
- डिस्कवर
- डिस्कवर तो बजाज की है । लोग बताते हैं कि बजाज की गाड़ियाँ ज्यादा मजबूत नहीं रहतीं । लेना तो हॉण्डा की लेना
- मुझे डिस्कवर पसन्द है । वह चलाने में अच्छी लगती है
- बजाज की रहने दो, उसको सेकेंड हैंड बेचने पर अच्छे दाम नहीं मिलते । हॉण्डा की रिसेल वैल्यू ज्यादा है
- हम अपने लिए खरीद रहे हैं, बेचने के लिए थोड़े ही, बेचने की क्या जरूरत
- जब दूसरी गाड़ी लोगे, यह पुरानी हो जाएगी तो बेचने का मन करे तो?
- हमारी स्थिति अभी इतनी नहीं है कि बार बार बाइक बदलते रहें । बेचने की जरूरत नहीं पड़ेगी
- ठीक है जैसा ठीक लगे वो करना । वैसे बजाज का एवरेज भी अच्छा रहता है पर रिसेल वैल्यू और टिकाऊपन कम होता है
- ठीक है

दादा ने अगले दिन फोन करके कहा हॉण्डा की अच्छी रहती है । अगर बड़ी गाड़ी ही लेनी है तो उसी की पैशन ले सकते हो
भांजे ने (तब ९ साल का) भी कहा कि कह दो कि बजाज की गाड़ी न लेना । हॉण्डा की लेना (उसके घर में है, इसीलिए उसे पसन्द है)
हम इतनी बड़ी गाड़ी नहीं लेना चाहते थे कि हम ही उस पर छोटे लगें । इस हिसाब से डिस्कवर सबसे फिट पड़ रही थी ।

अगले दिन फिर पिताजी ने फोन किया
- जब डिस्कवर ही लेना है तो छोटी वाली लेना । एक १०० सीसी की आती है और एक १३५ सीसी की । छोटी वाली लेना उसमें एवरेज ज्यादा रहेगा, उसमें पाँच गियर हैं । अभी भी सस्ती रहेगी, चलती भी अच्छी है और एवरेज ज्यादा है, आगे भी उसपे खर्च कम रहेगा
- ठीक है, लेते समय देखेंगे

हमने तो १२५ सीसी की पसन्द की थी । दुकान में केवल दो संस्करण थे - १०० सीसी और १३५ सीसी । १२५ में कोई दुविधा नहीं थी । अब ये दो चरम की तरह थे । एक तरफ़ अभी कम खर्च, आगे कम खर्च, ५ गियर, देखने में भी साइज़ छोटा नहीं । दूसरी तरफ़ अच्छा पिक-अप, चलाने में आनन्द, ज्यादा चलना हो तो उसके लिए ज्यादा दम । काफ़ी देर लगाई निर्णय करने में । सुरजीत जी और उमेश जी साथ गए थे । धनतेरस का दिन चुना था । १५ अक्टूबर २००९ । हम बड़ी वाली डिस्कवर लेकर आ गए । डिस्कवर ऑफ़ ए रिसर्चर ।

हर बात पर पिताजी सहमत हो गए थे । बस एक चीज़ बाकी थी, यदि छोटी डिस्कवर या हॉण्डा लेते तो और भी सन्तुष्ट रहते । घर जाकर जब घर वाली मोटरसाइकिल चलाई और अपना अनुभव बताया पिताजी को- इस मोटरसाइकिल पर मेरा कंट्रोल अच्छा नहीं रहता, अपनी वाली मुझसे अच्छी चलती है । तब पिताजी सन्तुष्ट हो गए - तो फिर ठीक है ।

हम खुश हैं अपनी इस मोटरसाइकिल - “डिस्कवर ऑफ़ ए रिसर्चर”के साथ .... :)