कुछ बातें होती हैं जिन्हें कहने का मन होता है पर सामान्यतः किसी के काम की नहीं होतीं । आज के उपयोगितावादी युग में ऐसी अनुपयोगी बातों को कौन सुने । अगर कहने लगूँ तो वे लोग भी ऊब जाते हैं जिनसे बहुत सारी लाभकारी बातें की हों । सदा मैं ऐसा नहीं रह सकता कि केवल मतलब की बात करूँ । मैं किसी से ऐसी आशा कैसे रख सकता हूँ कि कोई केवल मेरी बकवास सुनने के लिए अपना समय खर्च करे । इसके लिए यह ब्लॉग बनाया है, जहाँ सामने बैठे सुनने वाले की ज़रूरत नहीं । फिर भी मनुष्य की अपनी महत्त्वपूर्ण जगह है ।
गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011
डिस्कवर ऑफ़ ए रिसर्चर
यहाँ मैं वह घटना शेयर करना चाह रहा हूँ जिस लम्बी प्रक्रिया के तहत मेरी मोटरसाइकिल खरीदने का निश्चय किया गया । उमेश जी की बजाज डिस्कवर चलाने में बहुत मजा आ रहा था क्योंकि मेरा अभ्यास कम था फिर भी उसे चलाना बड़ा सहज लगता था । सर मुझे बार बार खुश रहने की सलाह देते रहते थे । खुश रहने के अलग-अलग तरीके बताते । इन्हीं तरीकों में उन्होंने एक बार बता दिया कि एक बाइक खरीद लीजिए । ऐसी कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं थी । धीरे धीरे मन बनने लगा तो सोचा कि डिस्कवर ही ली जाए, उसे चलाने में ज्यादा मज़ा आता है । सर की गाड़ी भी डिस्कवर थी । उनके पास कार थी फिर भी शौक के लिए उन्होंने मोटरसाइकिल खरीदी थी । उमेश जी की ११२ सीसी की थी और सर की १२५ की । एक बार सर की मोटरसाइकिल से बुके लेने जाना हुआ । उसे चलाकर तो आनन्द ही आ गया । वह जैसे इशारा समझती थी । तभी सोच लिया कि गाड़ी लेनी है तो दमदार ही लेनी है । फिर मेरे पास ऐसा समय आया कि खाते में बहुत कम रूपये रह गए । मोटरसाइकिल लेने की इच्छा पृष्ठभूमि में चली गई । सुरजीत ने भी कई बार मेरी मोटरसाइकिल लेने की इच्छा का समर्थन किया था । अक्टूबर के प्रारम्भ की यह बात है । फिर उसके बाद कुछ ही दिनों में कुछ जगहों से गया हुआ रूपया वापस आने लगा और हमारे खाते में मोटरसाइकिल लेने भर के रुपये इकट्ठे हो गए । तब निराश होती मोटरसाइकिल लेने की इच्छा फिर से उत्साह पा गई । और १२-१३ तारीख को तय कर लिया कि मोटरसाइकिल ले लेंगे (रुपये तो रुकते नहीं हैं हमारे पास, कोई चीज़ होगी तो वह ज्यादा रुकेगी) । सर की प्रेरणा भी काफ़ी काम कर रही थी । तब हमने सोचा कि घर में बता दें, नहीं तो अच्छा नहीं लगेगा कि इतने बड़े काम को भी बताया ।
पिताजी को फ़ोन करके बताया कि एक मोटरसाइकिल लेना चाह रहे हैं । हमारी इच्छा थी की पिताजी की सहमति के साथ ही लें । और अपने मन की भी करना चाहते थे । सर की प्रेरणा के हिसाब से ऐसी मोटरसाइकिल लेना चाहते थे जिसके साथ हम खुश रहें । अगर खुशी न मिले तो मुख्य उद्देश्य ही नहीं पूरा होगा । जब दोनों बातें एक दिशा में हों तो बहुत आसान हो जाता है । जब दोनों मतियाँ हर कदम पर अलग अलग हों, और दोनों को साथ लेकर चलना हो तो बात दूसरी होती है । अब देखिये अपनी मर्जी और पिताजी की सहमति का सन्तुलन कितना होता है...
मैं - पिताजी ! हम एक मोटरसाइकिल लेना चाहते हैं
पिताजी - क्या करोगे लेकर? क्या जरूरत है? रहने दो
- हम लेना चाह रहे हैं
- रहने दो लेने को, या फिर यहाँ कोई सेकेंड हैंड देख लेंगे (पिताजी को नहीं भरोसा था कि मैं चला सकता हूँ)
- हम नई लेना चाह रहे हैं
- नई रहने दो, यहाँ दीवाली को आओगे तो बात करेंगे
- हम परसों धनतेरस को लेना चाह रहे हैं
- मोटरसाइकिल लेकर क्या करोगे? सीधे चार पहिये वाली गाड़ी लेना
- उसका समय अभी बहुत दूर है । अभी तो मोटरसाइकिल ले लें
- नहीं ले सकोगे तो मिल जाएगी (व्याख्या की जरूरत नहीं, मैं इससे सहमत नहीं)
- मुझे दूसरे से नहीं लेनी । मुझे अपनी गाड़ी लेनी है
- ठीक है अभी रहने दो, जब यहाँ आओगे तो बात करेंगे
फिर घर में भाई बहनों ने कहा कि ले लेने दो, कभी कुछ माँगते नहीं हैं । अपने लिए कुछ लेना चाह रहे हैं तो ले लेने दो । तब पिताजी ने फिर फोन किया ।
- सभी कह रहे हैं कि ले लेने दो । मोटरसाइकिल रहने दो, स्कूटी ले लो तो बहनें भी चला सकेंगी
- हम बड़ी मोटरसाइकिल लेना चाह रहे हैं
- कौन सी लेना चाह रहे हो
- डिस्कवर
- डिस्कवर तो बजाज की है । लोग बताते हैं कि बजाज की गाड़ियाँ ज्यादा मजबूत नहीं रहतीं । लेना तो हॉण्डा की लेना
- मुझे डिस्कवर पसन्द है । वह चलाने में अच्छी लगती है
- बजाज की रहने दो, उसको सेकेंड हैंड बेचने पर अच्छे दाम नहीं मिलते । हॉण्डा की रिसेल वैल्यू ज्यादा है
- हम अपने लिए खरीद रहे हैं, बेचने के लिए थोड़े ही, बेचने की क्या जरूरत
- जब दूसरी गाड़ी लोगे, यह पुरानी हो जाएगी तो बेचने का मन करे तो?
- हमारी स्थिति अभी इतनी नहीं है कि बार बार बाइक बदलते रहें । बेचने की जरूरत नहीं पड़ेगी
- ठीक है जैसा ठीक लगे वो करना । वैसे बजाज का एवरेज भी अच्छा रहता है पर रिसेल वैल्यू और टिकाऊपन कम होता है
- ठीक है
दादा ने अगले दिन फोन करके कहा हॉण्डा की अच्छी रहती है । अगर बड़ी गाड़ी ही लेनी है तो उसी की पैशन ले सकते हो
भांजे ने (तब ९ साल का) भी कहा कि कह दो कि बजाज की गाड़ी न लेना । हॉण्डा की लेना (उसके घर में है, इसीलिए उसे पसन्द है)
हम इतनी बड़ी गाड़ी नहीं लेना चाहते थे कि हम ही उस पर छोटे लगें । इस हिसाब से डिस्कवर सबसे फिट पड़ रही थी ।
अगले दिन फिर पिताजी ने फोन किया
- जब डिस्कवर ही लेना है तो छोटी वाली लेना । एक १०० सीसी की आती है और एक १३५ सीसी की । छोटी वाली लेना उसमें एवरेज ज्यादा रहेगा, उसमें पाँच गियर हैं । अभी भी सस्ती रहेगी, चलती भी अच्छी है और एवरेज ज्यादा है, आगे भी उसपे खर्च कम रहेगा
- ठीक है, लेते समय देखेंगे
हमने तो १२५ सीसी की पसन्द की थी । दुकान में केवल दो संस्करण थे - १०० सीसी और १३५ सीसी । १२५ में कोई दुविधा नहीं थी । अब ये दो चरम की तरह थे । एक तरफ़ अभी कम खर्च, आगे कम खर्च, ५ गियर, देखने में भी साइज़ छोटा नहीं । दूसरी तरफ़ अच्छा पिक-अप, चलाने में आनन्द, ज्यादा चलना हो तो उसके लिए ज्यादा दम । काफ़ी देर लगाई निर्णय करने में । सुरजीत जी और उमेश जी साथ गए थे । धनतेरस का दिन चुना था । १५ अक्टूबर २००९ । हम बड़ी वाली डिस्कवर लेकर आ गए । डिस्कवर ऑफ़ ए रिसर्चर ।
हर बात पर पिताजी सहमत हो गए थे । बस एक चीज़ बाकी थी, यदि छोटी डिस्कवर या हॉण्डा लेते तो और भी सन्तुष्ट रहते । घर जाकर जब घर वाली मोटरसाइकिल चलाई और अपना अनुभव बताया पिताजी को- इस मोटरसाइकिल पर मेरा कंट्रोल अच्छा नहीं रहता, अपनी वाली मुझसे अच्छी चलती है । तब पिताजी सन्तुष्ट हो गए - तो फिर ठीक है ।
हम खुश हैं अपनी इस मोटरसाइकिल - “डिस्कवर ऑफ़ ए रिसर्चर”के साथ .... :)
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ise blog par dalne ki kya jarurat thi.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबधाई हो सर....
जवाब देंहटाएंआप खुश हैं तो फिर सब सही है...
आपको देखा है बाइक पर जेएनयू में ...
सही जंचते हैं :) :
badhai ho sir,
जवाब देंहटाएंaakhir aapne bike (discover) kharid hi li..