शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

एक ग़ज़ल और दो से अधिक शेर की

वे सुनना न चाहें तो कोई कैसे कह पाए
इतनी बातें अपने अन्दर कैसे दबाए ।

हम उनकी नज़र में पड़े बार बार
पर उन्हें बड़ी मुश्किल से नज़र आए ।

किसी से बताता नहीं उलझन अपनी
कोई भला हल कोई कैसे सुझाए ।

है बहुत धीरज सब ख़ुद में छिपा लेने का
पर धीरज का सागर वो कहाँ से लाए ।

रात और दिन में थोड़ा तो भला फ़र्क करो
दिन में रखो होश औ रात में सपना आए ।

लोग कहते हैं कि बोला करो सीधा थोड़ा
बात सूर्यांशी की भला किसको समझ में आए ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. सर नमस्कार!
    आपकी इस गज़ल से कोई क्या अर्थ लगाये? कहीं आप व्यञ्जना करते-करते व्यञ्जित तो नहीं हो गये?
    कुल मिलाकर आपकी यह रचना अच्छी लगी। मात्र मुझे ही नहीं अपितु लगभग सभी को अच्छी लगेगी क्योंकि जीवन-प्रवाह में ऐसे क्षणों से सभी का साक्षात्कार होता है अब ये अलग बात है कि समय एक सा न हो.............
    इसलिये ऐसी रचनाओं के प्रशंसकों की कमीं नहीं होती..........................जो रचना हृदयस्थ भावों की पृष्ठभूमि पर लिखी जाती है एवम् जिसमें भावों का ईमानदारीपूर्वक प्रस्फुटन होता है वह सबके हृदय के समीप होती है..................कोई हृदयहीन हो तो मैं उसकी बात नहीं करती। पर प्रत्येक विचारशील मानस को आपकी यह रचना झंकृत करेगी।
    आपने व्यस्ततावश अभी अपनी लेखनी पर विराम लगा रखा है अब व्यस्तता समाप्त हुई लेखनी प्रवाहित कीजिये..........विलम्ब किसलिये?

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  2. ममता, अच्छा लगा आपकी टिप्पणी पढ़कर । और खास अच्छा यह लगा कि आपने सार्थक टिप्पणी की है, विषय से सम्बन्धित ।
    लेखनी मेरी नियमित नहीं है । अक्सर आदत अपने भावों को अपने ही अन्दर हजम कर जाने की होती है पर कभी मात्रा अधिक हो जाने से बाहर निकल ही आते हैं । उन्हें काव्य के माध्यम से व्यक्त करने से यह सुरक्षा रहती है कि ‘सुनि इठलैहैं लोग सब’ वाली बात नहीं होती । भावना पर कला का कवच चढ़ जाता है ।
    काव्य रचने का शौक तो मुझे है पर दूसरे बहुत से शौकों की तरह यह भी दबा हुआ सा रहता है । काव्य में अपनी भावना को खुलकर व्यक्त करना अच्छा नहीं लगता क्योंकि मजा लेने वालों की कमी नहीं है और भावना का मजाक उड़ाया जाना बहुत दर्द देता है । साथ ही काव्य के भाव कुछ हमारे अन्दर से ही आते हैं कि झूठे भाव से कविता करना भी मुझे नापसन्द है ।
    जो आपने कहा कि व्यञ्जना करते करते आप स्व्यं व्यञ्जित तो नहीं हो गए, तो इसमें विशेष कुछ नहीं है क्योंकि कविता में कवि व्यञ्जित होता ही है । याद नहीं किसी की कविता की कुछ पंक्तियाँ हैं - “कालिदास सच सच बतलाना -------- रघु रोए या तुम रोए थे” ।

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