शनिवार, 18 दिसंबर 2010

एक और गज़ल - तुम जा नहीं सकती

है इतनी ठंड कि माचिस इसे सुलगा नहीं सकती
जगाने की तो छोड़ो ठीक से ये हिला नहीं सकती ॥

तुम्हारी ज्यादती से है बड़ा धीरज मेरा ऐसे
कि कुछ भी करके मेरी नफ़रतें तुम पा नहीं सकती ।

है इतनी सूक्ष्म अपनी भावना कि जल नहीं सकती
जल भी भिगो नहीं सकता पवन भी सुखा नहीं सकती ॥

की तुमने खूब कोशिश कि सदा लड़ता रहूँ तुमसे
मैं लड़ना जो न चाहूँ तो तुम मुझको लड़ा नहीं सकती ।

तुम्हारी भावना का ख्याल करके छूट दी तुमको
जो ढंग से चाह लूँ तो और कहीं तुम जा नहीं सकती ॥

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